भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नज़र में आजतक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला / ओमप्रकाश यती

Kavita Kosh से
Omprakash yati (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:44, 22 नवम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{KKGlobal}}


नज़र में आजतक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
तेरे चेहरे  के अन्दर दूसरा  चेहरा नहीं निकला  

कहीं मैं डूबने  से बच न जाऊं, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक  से होकर कोई तिनका नहीं निकला  

ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़  गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला  

सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़  का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला 

जहाँ पर ज़िन्दगी की, यूँ कहें खैरात बंटती  थी
उसी मंदिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला