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चक्रव्यूह / शरद चन्द्र गौड़

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ना जाने
किस चक्रव्यूह में
फँस गया हूँ मैं
होऊँगा कब आज़ाद
किस तरह कुछ पता नहीं

याद है
मुझे वो दिन
जब गया था में
शिकार पर
पंछी फड़-फड़ा रहा था
मेरे बिछाए जाल में
कुछ मेरी ही तरह

मुझे मिल गई
मेरी मंज़िल
मेरे बिछाए जाल में
मैं किस की मंज़िल हूँ
कुछ पता नहीं

ज़िंदगी को चाहे जितना सँवार लो
किसने देखी हे क़ब्र खोद कर
ना जाने कब से आँखे क्यों जल रही
लगता है मंज़िल क़रीब है सोने के लिए