Last modified on 23 नवम्बर 2010, at 09:59

कुम्हार का घड़ा / शरद चन्द्र गौड़

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:59, 23 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद चन्द्र गौड़ |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> आज मैने घड़़…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आज मैने घड़़ा बनाया
घूमते हुए चाक पर
गीली मिट्टी को चढ़ा
अपनी हथेलियों और
अँगुलियों से सहेजकर

चाक पर चढ़ी
मेरे हाथों से घूमती मिट्टी
मुझ से पूछ रही थी
मेरा क्या बनाओगे
जो भी बनाओं
घड़ा या सुराही
दिया या ढक्कन
बस बेडौल नहीं बनाना

घबराहट में वह
इधर-उधर गिर जाती
और ताकती
बूढ़े कुम्हार की ओर
ये तुमने
किसे बिठा दिया चाक पर
मेरा रूप बनाने
नौसीखिये हाथों में
ढलती मिट्टी
चिन्तित है अपने भविष्य पर
मैनें भी देखा
बूढ़े कुम्हार की ओर आस से
वह मेरी मंशा समझ गया
और उसने अपना हाथ
लगा
सम्हाला मिट्टी को चॉक पर
मिट्टी में भी जीने
की आस बंधी
और संभल गई वह चॉक पर

एक सुन्दर सा घड़ा बन गया
आज मेरे हाथ से
घूमते हुए चाक पर