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जगदलपुर का वीरान प्लेटफार्म / शरद चन्द्र गौड़

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मैं वीरान प्लेटफार्म
जगदलपुर रेलवे स्टेशन का
इंतज़ार में
एक मात्र पैसेन्जर का
पलकें बिछाए
जीवित हो उठता हूँ मैं
जब आती है पैसेन्जर
मुसाफ़िरो का कोलाहल
चढ़ते-उतरते यात्री
फिर आती है
सीटी की आवाज़
और चली जाती है पैसेन्जर
मुझे फिर वीरान कर
कब्रिस्तान सा सन्नाटा
सूई के गिरने की आवाज़
भी गोली चलने-सी लगे

मैं के०के० लाईन का
महत्त्वपूर्ण प्लेटफार्म
मेरे सामने से चली जाती है
धड़धड़ाती मालगाड़ियाँ
लोहा भरकर
मुझे बिना छुए
और मैं उनको ताकता
ठगा-सा महसूस करता
रोता हूँ अपने भाग्य पर

हीराकुण्ड और समलेश्वरी
ने भी
मेरी सुध नहीं ली
रायपुर-दुर्ग की
गाड़ियां भी मैं
ना देख सका

मेरे सीने पर तनी है
एक मात्र चाय की दुकान
अपने भाग्य पर रोती
मुसाफ़िरों के इंतज़ार में

मैं देखता हूँ
उस टिकिट की खिड़की को
रोज़
जहाँ कभी मुसाफ़िरों को
टिकट लेने
लाईन में नहीं
लगना पड़ता

बाहर खड़े
इक्का-दुक्का रिक्शे ऑटो वालों
का इंतज़ार अब ख़त्म
नही होगा
क्योंकि
एक मात्र पेसेन्जर आज कैंसिल है

मेरा रिजर्वेशन काउंटर
सबसे आबाद
राजधानी हो या छत्तीसगढ़
गोंडवाना हो या समता
हीराकुण्ड हो या समलेश्वरी
दिल्ली के मुसाफ़िर हों या
कोलकाता के
मुम्बई के राही हों या बेंगलोर के
सब यहाँ मिलते
और मुझे चिढ़ाते
लेकिन मेरी
ख़ामोशी को
ये ही पी जाते
इस इंतज़ार में
कब वो चढ़ेंगे
यहाँ से
अपने गंतव्य को

मै वीरान प्लेटफार्म
देखता रहता
उनको टुकुर-टुकुर