Last modified on 23 नवम्बर 2010, at 12:38

पहाड़ी खानाबदोशों का गीत / अजेय

अजेय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:38, 23 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>अलविदा ओ पतझड़ ! बाँध लिया है अपना डेरा-डफेरा होंने ही वाला है स…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अलविदा ओ पतझड़ !
बाँध लिया है अपना डेरा-डफेरा
होंने ही वाला है सवेरा
हाँक दिया है अपना रेवड़ हमने पथरीली फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठण्डी रात थी
अब जल्दी ही बीत जाएगी
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे !

विदा, ओ खामोश बूढ़े सराय !
तेरी केतलियाँ भरी हुई हैं
लबालब हमारे गीतों से.
हमारी जेबों में भरी हुई है
ठसाठस तेरी कविताएं
मिलकर समेट लें
भोर होने से पहले
अँधेरी रातों की तमाम यादें
आज हम पहाड़ लाँघॆंगे
उस पार की हलचल सुनेंगे !

विदा , ओ गबरू जवान कारिन्दो !
हमारे पिट्ठुओं में
ठूँस दिए हैं तुमने
अपनी संवेदनाओं के गीले रूमाल
सुलगा दिया है तुमने
हमारी छातियों में
अपनी अँगीठियों का दहकता जुनून
उमड़ने लगा है एक लाल बादल
पूरब के उस कोने में

आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की हवाएं सूँघेंगे !

सोई रहो बरफ में
ओ, कमज़ोर नदियो
बीते मौसम घूँट घूँट पिया है
तुम्हें बदले में कुछ भी नहीं दिया है
तैरती है हमारी देहों में
तुम्हारी ही नमी
तुम्हारी ही लहरें मचलती हैं
हमारे पाँवों में
सूरज उतर आया है आधी ढलान तक
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे !

विदा, ओ अच्छी ब्यूँस की टहनियों
लहलहाते स्वप्न हैं
हमारी आँखों में
तुम्हारी हरियाली के
मज़बूत लाठियाँ हैं
हमारे हाथों में तुम्हारे भरोसे की
तुम अपनी झरती पत्तियों के आँचल में
सहेज लेना चुपके से
थोड़ी सी मिट्टी और कुछ नायाब बीज
अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे ! कारगा, 20.11.2009