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माँ / मनीष मिश्र

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जून की तिक्त दोपहर में
माँ उमड़ आती थी बारिश की तरह।
दिस6बर के नीले, ठंडे आलोक में
उतर आती थी धूप की तरह।
एक दम चुप, अकेले दिनों में
दोस्त-ठिकाने की तरह।
उसकी खनखनाती दुनिया में
चुपचाप आया सन्नाटा।
बेटे अपनी दुनिया में होने लगे तटस्थ
अपनी गणित से हारे पिता होने लगे विरक्त
अपनी उगती पौध को स6हालती बेटी होने लगी व्यस्त
माँ ने सीखा यादों में हरा होने का नया राग।
मोबाइल फोन की घंटी ने रची एक अद्भुत धुन
उसने सोचा दूरियाँ तो मन की होती हैं
फोन से सही वो बहेगी तार-तार
लेकिन-
टैरिफ और टॉप-अप की निर्मम दुनिया में
संवेदनाओं की उम्र होती है
प्रेम की दर पल्स में नपती है
बस यही नहीं समझ सकी माँ।
वो आज भी सोचती है
जून की तिक्त दोपहर में
अपने बच्चों पर उमड़ आयेगी बारिश की तरह।
दुनिया की तमाम तटस्थताओं के खिलाफ।