भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हेत रा रंग / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:16, 26 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन गोपाल लढ़ा |संग्रह=म्हारी पाँती री चितावां…)
कूड़ कोनी कथीजी
कै हेत रा
हजार रंग हूवै।
उण बगत रै बायरै में
म्हैं सूंघतो
प्रीत री सौरम
रात्यूं रास करतो
सपनां रे आगणै
हियै रचतो
एक इन्दरधनख।
बगत परवाण
हणै ई
हर रा नूंवां निरवाळा रंग
म्हारै सामीं ऊभा है
चितराम अवस बदळग्या।
स्यात
इण बेरंग
हुंवती दुनियां नै
रंगीन देखण सारू
जरूरी हुवै
हेत रंगी आंख्या।