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दुखता रहता है अब जीवन / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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दुखता रहता है अब जीवन;
पतझड़ का जैसा वन-उपवन ।

        झर-झर कर जितने पत्र नवल
        कर गए रिक्त तनु का तरुदल,
       हैं चिह्न शेष केवल सम्बल,
       जिनसे लहराया था कानन ।

डालियाँ बहुत-सी सूख गईं,
उनकी न पत्रता हुई नई,
आधे से ज़्यादा घटा विटप,
बीज जो चला है ज्यों क्षण-क्षण ।

        यह वायु वसन्ती आई है
        कोयल कुछ क्षण कुछ गाई है,
       स्वर में क्या भरी बुढ़ाई है,
       दोनों ढलते जाते उन्मन ।