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देखा क्या..? / बीरेन्द्र कुमार महतो

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आकाँक्षाओं और आस्थाओं से परे
निढाल, मौन
देखा है कभी
उस इंसान को,
देखा है
फुटपाथ पर पड़ी
नंगी-अधनंगी
उस बेबस और लाचार
महिला को,
देखा है
भूख से बिलखते
मासूम चेहरों को
जिनकी तस्वीरें
होती हैं विकास के
सबसे उपरी पन्नों पर ।

देखा है
सरेआम लूटते
और बिकते
अपनी माँ-बहनों को,
देखा है
इंसान को
इंसानियत की नज़र से
जिनकी तस्वीरें
बड़ी चाव से
छापते और उस पर
रिरयाते हैं,
वाहवाही लूटते
उनकी नामों पर,
घूरते हैं उनकी
ज़ख़्मी काया को
किसी भूखे भेड़िये की तरह,

देखा है
उन झोपड़ियों की ओर झाँककर
जो पीढ़ियों से सहते रहे हैं
तुम्हारी यातनाएँ,
विकास और टैक्नोलॉजी के नाम पर
पल-प्रतिपल छलते रहे,
रचते रहे क्षण-प्रतिक्षण षड्यंत्र,
निचोड़ डाली पूरी की पूरी देह
भींगे कपड़े की तरह,

ढाते रहे ज़ुल्म
साँस रूकने तक,
तड़प ना पाया
चाह कर भी
मौन था, मौन ही मरता रहा,
पर, क्या
महसूस की है कभी तुमने
उनके भीतर की आकाँक्षा
जानने चाहे हैं कभी
उनके सपने, उनके अरमान..?

देखा है कभी फ़ुर्सत के क्षणों में
झाँककर अपनी अंर्तआत्मा में ?
नहीं..?, तो फिर देखा क्या है तुमने
सिर्फ़ अपने ऐश-ओ-आराम के सिवा..?

मूल नागपुरी से अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा