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जीवन की सुनसान डगर में / कुमार अनिल

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जीवन की सुनसान डगर में
तनहा हूँ हर एक सफ़र में

हवा, धूप, पानी से बढ़कर
तुम रहते हो मेरे घर में

भूखे बच्चे बाट जोहते
आटा-दाल नहीं है घर में

घर में ज़्यादा शोर सड़क से
अंतर क्या है घर बाहर में

मारा-मारा फिरता है वो
इस खंडहर से उस खंडहर में

घर कहता है छोड़ के आना
दफ़्तर की बातें दफ़्तर में

घर में भर लूँ सारी दुनिया
घर तो हो पर दुनिया भर में

इन्हें काट कर छोटा कर दो
पाँव नहीं छिपते चादर में