शरद ऋतु में
खेतों से उठने वाली गंध
जैसे तैसे चलकर
जब पहुँचती है नथुनों तक
तो पा लेती हूँ मैं अपने पिता को ।
जब भी अनुभव करती हूँ
किसी दुकान से लाए गए
टटके तह खुले 'गामोशा' की गमक
तो जैसे वापस मिल जाती है माँ ।
कहाँ रख जाऊँगी मैं
स्वयं को
ओह कहाँ ?
अपने बच्चों के लिए ?