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मेरा स्वदेश आज / जया मित्र

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हाथ बढ़ाने से
कुछ नहीं छू पाती उँगलियाँ
न हवा
न कुहासा
न ही नदी की गंध
बस कीचड़ में डूबते जा रहे हैं
तलुवे पाँवों के

अरे ! ये क्या है ?
पानी ?
या इंसान के ख़ून की धारा ?
अन्धकार इस प्रश्न का
कोई जवाब नहीं देता
मेरे एक ओर फैली है
ख़ाक उजड़ी बस्ती
दूसरी ओर
खंड-खंड हुई यह ज़मीन

बीच के इस खालीपन में खड़ी
शून्य ह्दय से मैं
उध्वस्त भीड़ के
रोते हुए खोए-खोए चेहरों में
ओ मेरे देश !
तुम्ही को ढूँढती फिर रही हूँ ।


मूल बंगला से अनुवाद : नीता बैनर्जी