आज से ठीक पचपन वर्ष पहले
युवा कवि कुंवर नारायण
नाज़िम हिक़मत के साथ थे
वारसा में
ठीक उसी वर्ष वहीं उनकी भेंट हुई थी पाब्लो नेरूदा से
१९५५ में
तब क्या उम्र रही होगी कुंवर नारायण की?
जन्म १९ सितंबर १९२७
तब वे अट्ठाईस वर्ष के रहे होंगे
बिल्कुल युवा कवि
कविताएँ वे लिख रहे थे निरंतर
लेकिन तब तक उनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी
और न कविता की दुनिया में उनका नाम था
'युगचेतना' के संपादन से वे जुड़े थे
साहित्यिक हलचल तो जरूर रही होगी उनके भीतर
'तीसरा सप्तक' तो निकला चार वर्षों बाद १९५९ में
अलबत्ता उनका पहला कविता संग्रह 'चक्रव्यूह' निकला १९५६ में
मुझे नहीं मालूम क्यों और कैसे पहुँचे थे कुंवर नारायण वारसा १९५५ में
लेकिन विश्व के दो महान कवियों-नाज़िम हिक़मत और पाब्लो नेरूदा से मिलने का उन्हें सौभाग्य मिला
वारसा में
१९५५ में
और उन्होंने उन ऐतिहासिक क्षणों को याद किया
ठीक पचपन वर्षों बाद
कितनी बदली होगी इस बीच कवि की आंतरिक दुनिया
कितनी बदल गई इस बीच दुनिया
हिन्दी के शीर्षस्थ कवि हो गए कुंवर नारायण
समाज ने उन्हें मान-सम्मान दिया
दिया भारतीय साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ
तिरासी के हुए कुंवर नारायण
लेकिन नहीं भूले १९५५ को
वारसा को
नाज़िम हिक़मत के साथ के क्षणों को
पचपन वर्षों बाद
'वे मास्को से वारसा आए थे
तुर्की के कठोर जेल-जीवन की थकान
अभी ताज़ा थी उनके चेहरे पर'
नाज़िम हिकमत के संग-साथ ने
वारसा के एक रेस्त्राँ में
बार-बार की मुलाक़ातों से
किस तरह भर दिया था तब
एक युवा कवि का शुरूआती जीवन
अपनी अदम्य जिजीविषा से
अब भी अच्छी तरह याद है
तिरासी वर्षीय कवि कुंवर नारायण को
पाब्लो नेरूदा से
वारसा के ही एक होटल में उनकी भेंट हुई थी १९५५ में
वारसा का ब्रिस्टल होटल
'जो एक तबाह नगर का
बचा-खुचा वैभव था ।'
गाँधी के देश का एक युवा कवि
चाय पी रहा था पाब्लो नेरूदा के साथ
वारसा में
और चाय का वाष्प उठ रही थी भारत में
१९५५ में
यहाँ मुझे याद आ रही है राजकमल चौधरी की लंबी कविता
'मुक्ति-प्रसंग' की पंक्तियाँ-
'क्यों एक ही दर्द मेरी कमर की हड्डियों में होता है/और वियतनाम में ।
तब इक्यावन वर्ष थे पाब्लो नेरूदा
और अट्ठाईस वर्ष के थे कुंवर नारायण
लेकिन अलग-अलग दिशाओं में वायुयान से उड़ते हुए
दोनों एक साथ देख रहे थे ऊँचाई से पृथ्वी को
दूर-दूर तक फैले यथार्थ को-'माच्चू-पिच्चू के शिखर'
मनुष्य की नियति को
दोनों के सामने पसरे थे
द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदी के अवशेष
एक युद्ध-आहत नगर में
तेज़ी से लौटता जीवन
जीवन का स्पंदन
बची-खुची मानवता
आचार्य शुक्ल ने 'कविता क्या है?' लेख को तीन बार ड्राफ्रट किया
लेकिन कभी भी ठीक से पता नहीं चलता
कहाँ से उगती है कविता?
जीवन के भीतर से या बाहर से
समय के अंतराल से या
बची-खुची स्मृतियों से
मैं कृतज्ञ हूँ कवि कुंवर नारायण का
पचपन वर्षों बाद एक साथ इन दोनों महाकवियों से मिलने-जैसा सुख मुझे मिला
कृतज्ञता में उठे हैं मेरे हाथ
मैं एक साथ मिल रहा हूँ नाज़िम हिक़मत से, पाब्लो नेरूदा से और कुंवर नारायण से
पचपन वर्षों बाद
वारसा में
मिला रहा हूँ इनसे हाथ
वारसा में
१९५५ में
ठीक आज से पचपन वर्ष पहले ।