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बन्दूँ, पद सुन्दर तव / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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    बंदूँ, पद सुंदर तव,
    छंद नवल स्वर-गौरव ।

जननि, जनक-जननि-जननि,
          जन्मभूमि-भाषे !
जागो, नव अम्बर-भर,
          ज्योतिस्तर-वासे !
        उठे स्वरोर्मियों-मुखर
       दिककुमारिका-पिक-रव ।

दृग-दृग को रंजित कर
अंजन भर दो भर--
बिंधे प्राण पंचबाण
के भी, परिचय शर ।
दृग-दृग की बँधी सुछबि
बाँधें सचराचर भव !