अकेले के पल- 2 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
तुम्हारे खुले द्वार पर
दस्तकों के लिए उठी मेरी उँगलियाँ
उठी ही रह गईं हैं हठात
कुछ अनचाहा देखकर
अनुमान से परे गुनकर
जीवन की पूरी ईकाई को
उसकी पूर्णता से तोड़कर
अंतर्प्रवेश को शर्तों से बाँधतीं
इस तख्ती ने
मुझे टोक दिया है, झकझोर दिया है-
‘‘मस्तिष्क और जूतों को यहीं उतार दें’’.
मित्र !
जूते तो जीवन के साथ
विकसित तत्व नहीं हैं
परंतु मस्तिष्क तो
शरीर के तंतु-विकास का
स्वाभाविक परिणाम है
चेतना के शिखर में
क्या बुद्धि असंस्पर्श्य हो जाती है
विवेक और समझ का आमंत्रण
पर मस्तिष्क का अनामंत्रण
यह गुत्थी मुझसे सुलझती नहीं
मैं इस तख्ती की वर्जना को मानूँ
तो इन पलों को मुझे छोड़ना होगा
जो मेरे रक्त में एकीभूत हैं
‘आनंद’ ने इन पलों को छोड़ा
पर ‘बुद्ध’ का साहचर्य भी उसे
‘महाकश्यप’ नहीं बना सका.
मस्तिष्क को यहीं उतार दूँ
पर भला कैसे
समर्पण तो भक्त भी करते है
गुलाम और बूँधुआ मजदूर भी
मैं अपने मस्तिष्क को उतारकर
यहाँ जूतों की तरह नहीं रख सकता
तुम्हारी ड्यैांढ़ी से पृथक होने पर
उन्हें पहनना ही पड़ेगा
खंडित व्यष्टि से आपूर्य
अस्तित्व की सुगंध के स्वाद में
चेतना के साथ विकसित तथ्य
मस्तिष्क का तर्कानुक्रम
शीला 1 के अनावृत छद्म की
कड़वाहट भर देगा.
तुम्हारे खुले द्वार पर
मैंने अपने को
पूरा का पूरा उतारकर
कुछ क्षणों के लिए
आंगन के पार के द्वार को
लांघने को सोचा अवश्य
पर तब असमंजस ने आ घेरा
पूरा उतारने के बाद
मैं बचूँगा कितना
शून्य होने की कला तो
मुझे आती नहीं
सो बरबस
मुझे यहीं, द्वार पर ही
रुकने को बाध्य होना पड़ा है
बिना दस्तक दिए
अपनी संवेदनाओं में डूबता
मैं यहीं अटका खड़ा हूँ
रिक्त होता, दिशाओं को पीता हुआ.
तमाम स्पंदनों ने
मुझे आ घेरा है
पर एक विशिष्टता है
इनके साथ मैं अपने को भी देख रहा हूँ.
1 ओशो की शिया जिन्होंने रजनीश ( ओशो ) के नाम से एक धर्म चलाना चाहा.