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अकेले के पल- 7 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
       चला था मैं अकेले
       अकेले की नाव लिए
       तुम तक की एक लंबी यात्रा पर
       तू है तो
       यहीं से यहीं तक की
       दूरी जितनी दूरी पर
       पर तुम्हें अनुभव बनाने के लिए
       जन्मों की यात्रा भी
       शायद छोटी पड़ जाए.

       मैं इस दुस्सह लोक-गति की

       विपरीत यात्रा पर
       विलकुल निस्संग चला था
       अपने अकेले के पलों को भी ठेलकर
       मैंने दूर किया था
       पर ये अनामंत्रित पल
       न तो मुझसे छूट सके
       न मुझे ये छोड़ सके
       ये नाक की साँस की तरह
       मेरे साथ लगे रहे हैं.

       आज मैं महसूस करता हॅू
       इन्हें ठेलकर दूर करना
       वर्जना की दृष्टि है
       यह इन्हें और बल दे गई
       वस्तुतः इन्हें अलग
       किया भी कैसे जा सकता था
       ये ही तो मेरी उपस्थिति के
       जीवंत रेखांकन हैं
       आकाश की कोख में
       मेरे होने के हस्ताक्षर हैं
       ये मेरे वर्तमान हैं
       मैं इनका वर्तमान हूँ.
       लोक-दृष्टि में मैं अकेला हूँ
       मेरी नाव भी अकेली है
       मेरा साक्षी जानता है
       कि मेरा ‘मैं’ भी मेरे साथ नहीं है
       तय के अनुसार मैंने
       अकेले ही प्रस्थान किया था
 
       पर इन पलों का मैं क्या करूं
       मुझे क्षमा करना
       फिलहाल मैं जिस स्थिति में हूँ
       ये पल ही मेरे निर्माण के
       साक्षी रहेंगे
       यहाँ मेरे चिदअणुओं में पर्त दर पर्त
       स्पंदाघात करेंगे
       इन्हीं पलों के मौन में
       मैं अभिव्यक्त हेाता रहूँगा
       मेरे केंद्र के गिर्द
       यही मेरा संघनन करेंगे.

       मित्र !
       तुम्हारे द्वार तक
       इन्हीं पलों की तीव्रता
       इन्हीं का ओज
       इन्हीं की चुभन लिए
       मैं आया हूँ आंगन पार करके
       पर यहाँ के संस्पर्शों ने
       मुझे यहीे ठिठका दिया है
       इन पलों के तनावों ने
       मुझे जड़ दिया है सागर की लहरों पर
       यहाँ मैं हूँ, मेरे पल हैं
       समाने उच्छल सागर है,
       सागर का विस्तार है
                   
       और इस विस्तार के कंपन में
       मेरी अनुभूति के स्पंदन हैं.