चाहे ख़िलजी लाखों आएँ
नालन्दा हर बार जलाएँ
धू -धू करके जलें रात- दिन
अक्षर नहीं जला करते हैं।
विलीन हुए राजा और रानी
सिंहासन के उखड़े पाए
मुकुट हज़ारों मिले धूल में
बचा न कोई अश्क बहाए।
ग्रन्थ फाड़कर, आग लगाकर
बोलो तुम क्या क्या पाओगे
आग लगाकर तुम खुशियों में
खुद भी इक दिन जल जाओगे।
नफरत बोकर फूल खिलाना
बिन नौका सागर तर जाना
कभी नहीं होता यह जग में
औरों के घर बार जलाना।
जिसने जीवन दान दिया हो
उसे मौत की नींद सुलाना
जिन ग्रन्थों में जीवन धारा
बहुत पाप है उन्हें मिटाना।
ख़िलजी तो हर युग में आते
इस धरती पर ख़ून बहाते
मन में बसा हुआ नालन्दा
लाख मिटाओ मिटा न पाते।
आखर -आखर जल जाने से
ये शब्द नहीं मिट पाते हैं
भाव सरस बनकर वे मन में
अंकुर बनकर उग जाते हैं
जीवन जिनका है परहित में
कब मरण से डरा करते हैं।
मरना है इस जग में सबको
अक्षर नहीं मरा करते हैं।