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अचिर मही है / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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कहाँ धर्म के पथ पर पडते सहज सत्य के चरण यहाँ ?
वाणी के विपरीत आजकल होते हैं आचरण यहाँ ।
दुखी विश्व-बन्धुत्व मनुजता के सनीर दृग रहते हैं-
छोड समन्वयवाद आत्मकेन्द्रण का होता वरण यहाँ ।
इच्छाओं का पथ असीम है तू कब तक चल प्येगा ?
अचिर मही पर, नहीं किसी को मिल पाती चिर शरण यहाँ ।
हो न रंच अभिमान सतत परिवर्तन की इस बेला में,
जैसे जीवन हुआ सुनिश्चित वैसे निश्चित मरण यहाँ ।
चिकनी-चुपडी बातों के पंछी कलरव करते रहते,
और स्वार्थ की धूल कर रही धूमिल अन्तःकरण यहाँ ।
दुःखद माया से विरक्ति के देते तो उपदेश रहे,
निकल सका पर कौन तोडकर सघन मोह आवरण यहाँ ?
सत्य समन्वित प्रखर साधना अब जीवन में कहाँ रही ?
नित्य खोखले संसकारों का होता है अनुकरण यहाँ ।