Last modified on 27 अगस्त 2009, at 11:59

अज़्मत-ए-ज़िन्दगी को बेच दिया / सागर सिद्दीकी

अज़्मत-ए-ज़िन्दगी को बेच दिया
हम ने अपनी ख़ुशी को बेच दिया

चश्म-ए-साक़ी के इक इशारे पे
उम्र की तिश्नगि को बेच दिया

रिन्द जाम-ओ-सुबू पे हँसते हैं
शैख़ ने बन्दगी को बेच दिया

रहगुज़ारों पे लुट गई राधा
शाम ने बाँसुरी को बेच दिया

जगमगाते हैं वहशतों के दयार
अक़्ल ने आदमी को बेच दिया

लब-ओ-रुख़्सार के इवज़ हम ने
सित्वत-ए-ख़ुस्रवी को बेच दिया

इश्क़ बेहरूपिया है ऐ 'सागर'
आपने सादगी को बेच दिया