अदृश्य दृश्य / कुमार अनुपम
वे सिर्फ दिखते नहीं हैं
वे हैं यहीं कहीं
हमारे बिलकुल आसपास और अंतरंग
अपने होने का आभास देते कभी कभी
जब कोई कहता है कि देखो देखो
कितनी मिलती है
तुम्हारी आँख में तुम्हारी दादी की आँखों की चमक
तुम्हारे नक्श में बाबा की झलक दिखती है
अपनी पहचान की गाढ़ी रोशनाई से
बनाई गई आकृतियों में रंग भरते हुए
वे दृश्य रचते हैं ठोस
पिता के निपट अकेलेपन-सा हूबहू
अदृश्यपन को अप्रत्यक्ष साबित करते हुए
हमारे स्वर में गाते हैं
जब अपना मनपसंद लोकगीत
जिसमें पेट
पत्थरकाल से इस पत्थरकाल तक
भटकाता ही रह रहा बंजारे की तरह
एक स्त्री
ठिठक कर देखने लगती है हमारे कंठ की तरफ नहीं
किवाड़ से आनेवाली किसी अनागत आहट की ओर
अनादि प्रतीक्षा की पूरी बेचैनी में डूब
कई दुनियावी लोगों को तो देखा है हमने
किसी कृतज्ञता या किसी कोरी रंजिश में
अधीर हो
उम्र की घिसती जाती कमीज
की जर्जर बाँहों से पलकों की कोर पोछते हुए
कि अचानक उन्हें कुछ याद आता है
रात-मिल का सायरन चाक कर जाता है उनकी भावुकता
चौंक कर
वे शहद की किसी बे-हद नदी से जैसे छिटकते हैं
नए तीखे यथार्थ के वशीभूत हो सच में
जीना चाहने लगते हैं
दुनिया में पूरे होशोहवास के साथ कुछ दिन और
जिसकी मोहलत नहीं देते ऐसे अदृश्य उन्हें लगने लगता है
संचित इन पुरखा-पहचानों
के साथ का ध्यान धर हमने जाना है इतना
कि जिया जा सकता है
इस अत्याचारी समय की आँखों में आँख डाल
एक उसी खेतिहर गर्व के साथ सीना तान
एक पुराने गमछे और स्वाभिमान से पोछते हुए
माथे की बढ़ती जाती सिलवटों
और पसीने को बदला जा सकता है अब भी
पौधों के लिए जरूरी जीवन-जल में
ऐसे अदृश्य दृश्यों को देखना
ताकत देता है दृष्टि को
कठिनतम और अनाथ रातों में जिनके भरोसे
देखी जा सकती है धारदार धूप भी एक गाँधी चश्मे से सुरक्षित
जिसके शीशों को धुँधला और त्याज्य बताता
चीख रहा है समस्त सूचना संयंत्रों पर यह उत्तर-आधुनिक समय
उसका झूठ
किसी भय में भयानक होता जा रहा है।