हथिया-कानी के झाँटा के, देखोॅ आज अनोखा रंग।
आज प्रकृति के क्रुद्ध रुप देखोॅ, केहनोॅ बदलै छै ढंग॥
बंगालोॅ के खाड़ी सें ई, उठलोॅ छै भारी तूफान।
के जानै छ, केतना जीबोॅ के ये लेतै कोमल जान॥
घोर अँधेरा करलै ऐलोॅ छै ई पुरबैया तूफान।
चम-चम-चम-चम बिजली चमकै ठनका ठनकै काँपै प्रान॥
ऊ दिन हमरा गोतिया-नैया के पूरा दुर्गत होलै।
काँपी उठलै सौंसे बाड़ा घनन-घनन जखनी बालै॥
कड़-कड़-कड़ डार कचकलै, हू-हू-हू चलल अँधर।
माटी कोड़ी जोॅड़ उखड़लै, डार-पात सब धरती पर॥
चिड़ियाँ चुनमुन के खोता, उजरी-पुजरी-बिखरी गेलै।
अन्ड़ा-भुटका पिचकी गेलै, बच्चा सब हुकरी गेलै।
तड़-तड़-तड़ बज्जड़ खसलै, छाती धड़-धड़-धड़कै लागलै॥
भड़-भड़ गिरलै ताड़; पखेरू फड़-फड़-फड़-फड़क’ लागलै॥
भोर तलक हा-हा, हू-हू के, मचले रहलै ऊ उत्पात।
राम-राम-हेराम कहीकै, केन्हैं क कटलै ऊ रात॥
अडा पोका महक लागले, नाक तलक नै देलोॅ जाय।
कोआ-मैना कतेॅ मरलै, गिनती के छेॅ कोन उपाय॥