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अधूरापन / केशव
Kavita Kosh से
बीत गया यूँ आज भी
पर देखा न कहीं अंत
उदास खिड़्कियों में
जाले में उलझी पीली तितली-सा
लटक रहा सूरज
अटकी रही हलक में
मौसम की चीख
झरते रहे दिन की खोखली
छत से समाचार
और ठोस उंगलियाँ टाईपराईटर पर
पथरीली ईमारतों के अन्दर
करती रहीं वक़्त टाईप
गुज़र गया
गुज़र गया हर कोई
अजनबी सा
दिन के तालाब में
महज़ एक कंकड़ फ़ैंक
लावारिस दिन भटका किया हर कहीं
नहीं अपनाया किसी ने उसे
चाहे थे खाली सब हाथ
देखा नहीं उसने अन्त
अंत है कहाँ
रोज़-रोज़ लौट आने वाले
इस अधूरे पन का