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अधूरे सपने / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
उसने चाँद की उज्ज्वलता में
सपने बुने
लेकिन उनमें से एक फंदा
बुनने से रह गया
वह उस शहर में थी
जहाँ घर नहीं
बेघर रहते थे लोग
जहाँ बंद गलियाँ खुलती थीं
ठीक खाड़ी के मुहाने पर
जहाँ जहरीली हवा के बावजूद
गूँजती थी
रांझे की बांसुरी कभी-कभी
वह उस शहर में रहती रही
उम्र का सूरज ढलने तक
जब जीवन की चादर
तहा कर किनारे टिकाई
तो देखा अधूरे बुने सपने
नींद की पहुँच से दूर
टंग गए थे आसमान में
धुने हुए बादलों की तरह