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अनुत्तरित / दिनेश कुशवाह

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अनुबन्धों की शर्त लगाकर
लौट गईं तुम घर तक आकर
तब तो बहुत अकेली थीं तुम
अब कैसे रह पाती होंगी ?

कभी आँख भर आती होगी
मन की व्यथा सताती होगी
पहले तुम दौड़ी आती थीं
अब किससे कह पाती होंगी ?

जब कोई मिलता है तुम-सा
मन हो जाता है ये ग़ुम-सा
मेरे जैसा कभी किसी को
तुम भी तो पा जाती होंगी ?