अन्ततः / तसलीमा नसरीन
नहीं, कोलकाता
अन्ततः तुम भी मेरा कोई समाधान नहीं हो
मेरे सवालों का तुम कोई भी जवाब नहीं हो।
क्या भरोसा, तुम भी किसी पल किसी भी शहर की मानिन्द
लम्पट और कपटी बन सकते हो।
किसी भी पल तुम हार्दिक चारों दिशाओं को छोड़कर
चुन सकते हो अमानवीय आणविक-दिशा।
क्या भरोसा, तमाम मंचों पर तुम्हारे नाटक शायद नाटक ही हैं
तुम्हारी स्वार्थी क़वायदों की ओर ध्यान से देखने पर
दिखता है कि सभी कुछ नक़ली है, ठगी है सबकुछ।
क्या भरोसा!
ज़िन्दा बचे रहने के लिए मैं तुम्हारे पास आऊँ
और अगर तुम भी ऊष्मा खो बैठो,
और दूसरे शहरों की तरह ही मुँह फेरकर निष्ठुरता दिखाने लगो!
कहो कि प्यार करता हूँ, करता हूँ प्यार, और असल में प्यार न करो!
तुम्हारे ख़ूबसूरती के पिछले दरवाज़ों में झाँककर
जिस दिन देख लूँगी कुरूपता का ढेर!
यदि मैं जान जाऊँ कि तुम मुँह से भले ही कुछ भी कहो
असल में तुम उसे ही दे रहे हो जिसके पास सब कुछ है,
और जिसके पास कुछ भी नहीं
उसे धोखा दे रहे हो!
यदि देखूँ कि भीतर ही भीतर तुम आतंक फैलाने में जुटे हुए हो
मन ही मन में एक हत्यारे हो तुम!
और यदि मन उठ जाए!
तुमसे मन का उठ जाना यानी ब्रह्मान्ड से उठ जाना है,
तुम नहीं हो मतलब फिर कुछ भी नहीं है,
अन्तिम घास-फूस भी नहीं।
तुम तो स्वप्न हो, स्वप्न हो तुम
तुम स्वप्न बनकर ही रहो
मैं पृथ्वी के रास्तों पर तुम्हें साथ लेकर घूमूँगी-फिरूँगी
एक शहर से दूसरे शहर,
मैं मान लूँगी कि कोई भी शहर अपना नहीं है
मान लूँगी कि दूर कहीं पर एक कोलकाता नाम का एक शहर है,
दूर कहीं पर एक शहर है, मेरा शहर,
संसार का सबसे उजला शहर, अनिंद्य सुन्दर शहर,
एक शहर है जिसका नाम कोलकाता है
एक शहर है, मेरा शहर, मेरे प्यार का शहर।
मैं जानती हूँ कि अन्ततः तुम मेरा कोई भी सुख नहीं हो,
ओम शान्ति नहीं हो।
फिर भी सपने हैं, प्राणों में सपने हैं,
बिना सपनों के मनुष्य जी सकता है भला?
सपने हैं, रहें, कोलकाता को दूर ही रहने दो।
मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी