सौरभ निकुञ्ज पाली में
रजनी चन्द्रिका बिछाये
स्वागत करती थी मेरा
मणियों के दीप सजाये ।।९६।।
रजनी की तम - सरिता में
था चाँद विहँसता तिरता
मधुकण का भार सँजोए
मादक मारुत था फिरता ।।९७।।
रजनी के वक्षस्थल पर
सोता शशि, सीकर ढुलता।
नट - खट समीर से चंचल
अंचल पल-पल में खुलता।। ।।९८।।
झिलमिल मलयानिल चलकर
सुमनों की सेज सजाता
स्वप्निल अलसित आँखों से
झट-पट न वस्त्र हट पाता ।।९९।।
अब चाँद अग्नि बरसाता
अम्बर झरता ज्वाला-कण
लू लिए पवन है आता
जलता रे जीवन क्षण-क्षण ।।१००।।