क्या शमी लता - सी उस में
भीषण दावाग्नि छिपी थी ?
बाहर शीतल हरियाली
मृग-तृष्णा सदृश दिखी थी ।।१३६।।
वह प्रीती नहीं तो क्या थी?
धोखा, प्रपंच , माया थी ?
वाड़व ज्वाला भीतर थी
बाहर जल की छाया थी ? ।।१३७।।
है सच्चा प्रेम निशा का
हिमकर का औ' तारों का
चातक, चकोर का पावन
स्वाती का, अंगारों का ।।१३८।।
ओ मलयानिल! मत छूना
मेरे इस जलते तन को
शायद तुम भी जल जाओ
झट छोड़ भगो उपवन को ।।१३९।।
पर, कौन रोक सकता है
मधु पर मरने वालों को ?
दीपक की तिग्भप्रभा में
देखा जलने वालों को ।।१४०।।