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अन्तर्दाह / पृष्ठ 28 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'


क्या शमी लता - सी उस में
भीषण दावाग्नि छिपी थी ?
बाहर शीतल हरियाली
मृग-तृष्णा सदृश दिखी थी ।।१३६।।

वह प्रीती नहीं तो क्या थी?
धोखा, प्रपंच , माया थी ?
वाड़व ज्वाला भीतर थी
बाहर जल की छाया थी ? ।।१३७।।

है सच्चा प्रेम निशा का
हिमकर का औ' तारों का
चातक, चकोर का पावन
स्वाती का, अंगारों का ।।१३८।।

ओ मलयानिल! मत छूना
मेरे इस जलते तन को
शायद तुम भी जल जाओ
झट छोड़ भगो उपवन को ।।१३९।।

पर, कौन रोक सकता है
मधु पर मरने वालों को ?
दीपक की तिग्भप्रभा में
देखा जलने वालों को ।।१४०।।