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अन्तर्दाह / पृष्ठ 34 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'


क्यों अमानिशा छाई है
इस चक्रवाक के सुख में ?
है संगी कौन यहाँ पर
जो साथ मेरा दे दुख में ?।।१६६।।

सुख सुख के हैं सब साथी
दुख में न कोई संग देता
है साथी वही जगत में
जो दोनों में रंग लेता ।।१६७।।

निर्वाण करूँ क्या लेकर
लौटेगी बाजी हारी
उस शून्य हृदय-मंदिर का,
मैं केवल प्रेम - पुजारी ।।१६८।।

यह हृदय लबालब मेरा
तुम यों न बनो अनजानी !
पैरों की ललित गुलाली
देखूँ, हे मन की रानी ! ।।१६९।।

क्यों शमित हो गयी पाकर
आँसू को शीतल ज्वाले
बुझकर भी छोड़ गई हो
उर में बुल्ले - से छाले ।।१७०।।