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अन्तर्दाह / पृष्ठ 3 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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हम काट अन्त में लेते
जो कुछ पहले बोते हैं,
जीवन धुँधली संध्या में
हम खोकर फिर रोते हैं ।।११।।

क्षण भर का मिलन सृजन में
निरवधि वियोग रच जाता;
आँसू का घूँट हलाहल
बस पीने को बच जाता ।।१२।।

षोडस शशि उगता पहने
शीतल किरणों की माला,
मिलनातुर जलधि उमड़ता
जल उठती बाड़व ज्वाला ।।१३।।

कोमल किसलय की शैय्या
डाली में सुमन सँवारे ,
मकरन्द भरे सोते हों
मुख पर हिम-चादर डारे; ।।१४।।

उन मुकुलों के अधरों पर
शशि के कर सजल पड़े हों,
प्रहरी से सजग चतुर्दिक
काँटे सन्नद्ध खड़े हों; ।।१५।।