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अपंग सोच / निदा नवाज़
Kavita Kosh से
अँधेरी रात कब तक
प्रकाश के चैत्यों पर
व्यंग्य यूँ करती रहे?
सोच कब तक
सिर झुकाए
कब तक
अपनी आहट से भी यूँ
डरती रहे?
और कब तक
मौसम-ए-बारूद में
तर्क के हत्याग्रह
सजाये जायेंगे?
चेतना पर
चित पर
पहरे बिठाए जाएंगे?
या कि नागिन के से गुण
देखकर
अपने बच्चों को निगल ले जाएगें
या कि अपने हाथ-पांव काटकर
अपने अस्तित्व को अपंग करें?
अपने विचारों की तरह
अपने विवेक की तरह।