अपनी रचना प्रक्रिया तो बताओ / हरीशचन्द्र पाण्डे
अंकुर फूट रहे हैं जहाँ-तहाँ
हरी पत्तियों से पाटा जा रहा है शून्य
फल देने को बौराये हुए हो
पेड़! जरा अपनी रचना-प्रक्रिया तो बताओ
नहीं बताओगे?
चुप रहागे यों ही क्या?
अरे भई, इतना कुछ रच रहे हो
बताओगे कुछ नहीं?
कितने बसन्त बीते
पतझड़ बीते कितने
कभी कुछ नहीं बताया तुमने...
और अब बूढ़े हो चले हो
अब गिरते वक़्त तो बता दो भाई...
लो, आखिर गिर गये तुम ज़मीन पर
बिना कुछ बताये
देखो
तुम्हारी कुछ शाखों के दरवाजे़ बन रहे हैं अब
कुछ की मेज-कुर्सियाँ
और उपशाखों की जलावन
कुछ लोग तो तुम्हारी सूखी छाल निकाल रहे हैं
कहते हैं ये औषधि है
और तुम्हारी उखड़ी जड़ ने तो बना दिया है
एक ऊँचा टीला
बच्चे चढ़ रहे हैं उस पर
बड़े दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं
अपने प्रश्न का उत्तर पा गये हैं
शायद।