भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपने-अपने शून्य / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
जुट आई है भीड़ देखने
पेड़ आधुनिकता के उखड़े
ढहते काल-नदी के तीर ।
सिंगापुर की तस्वीरों में
जँचता खूब पलामू है
सदी बीसवीं से आजिज-सा
अपना रामू है
मुग्ध गुजरिया लगी नाचने
दधि माखन से भरे घड़े
परदेसों के जुटे अहीर ।
छोटी-सी इस दुनिया में
कितना ज़्यादा है अपनापन
शयन-कक्ष तक तारों से हैं
पहुँच रहे अब आमन्त्रण
गली-गली में बिकते सपने
हीरे-मोती-लाल जड़े
चमकी ‘गुलकी’ की तकदीर ।
चौराहों पर बिके सूचना
लौकी, कद्दू, सीताफल-सी
पड़ी टोकरी मूल्यों की
पर सड़े-गले बासी कटहल-सी
अपने-अपने शून्य बेचने
बाज़ारों में निकल पड़े सब
सूरा, तुलसी और कबीर।