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अपने गीत सुनाता हूँ / कमलेश द्विवेदी
Kavita Kosh से
अपने सुख की ख़ातिर लिखता सबको सुख पहुँचाता हूँ।
बस्ती-बस्ती जाकर सबको अपने गीत सुनाता हूँ।
मैं अपना ग़म लिखता सबको
अपना ग़म दिखलाई दे।
मैं जब अपनी ख़ुशी लिखूँ तो
सबको अपनी ख़ुशी दिखे।
कोई कितना भी आहत हो सबका दर्द मिटाता हूँ।
बस्ती-बस्ती जाकर सबको अपने गीत सुनाता हूँ।
ऐसा लगता लिखते-लिखते
उससे जुड़ जाता हूँ मैं।
अनजाने ही सही दिशा में
अक्सर मुड़ जाता हूँ मैं।
इसीलिए तो अपने सँग-सँग सबको सफ़र कराता हूँ।
बस्ती-बस्ती जाकर सबको अपने गीत सुनाता हूँ।
सच पूछो तो मैं क्या लिखता
सब कुछ वह लिखवाता है।
मेरे हाथ क़लम होती है
लेकिन वही चलाता है।
जो कुछ मुझको देता है वह सबके साथ बँटाता हूँ।
बस्ती-बस्ती जाकर सबको अपने गीत सुनाता हूँ।