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अपने साथ / माधवी शर्मा गुलेरी

दुर्लभ होते हैं ऐसे पल
सब होता है जब
एकान्त से भरा और
नितान्त निजी

कोई नहीं दिखता आस-पास
पथरीली चुप्पी के सिवा
मैं होती हूँ सिर्फ़
अपने साथ
वक़्त गुज़ारती हुई

बिखरने लगते हैं मोह-तंतु
टूट-टूट कर जब
बेतरह अकेला
भीतर का कोई अंश
गर्भनाल तोड़कर
आ बैठता है सामने
...
...
और मैं हो जाती हूँ अलमस्त ।