अपसूंण / चंद्रप्रकाश देवल
सईकां लांबी
उण धा काळी रात रै सूटापै
सैचन्नण चांनणै
नाचण रै कोड सूं पग मांडिया ई हा
मादळ रओ आटौ थेपड़ियौ हौ आलौ कर
थाळी सारू डाकौ सोध्यौ हौ
के चांणचक म्हे-
आजादी रै मंगळ परभात
अमंगळ व्हैग्यौ ।
पग हा जठै ई रुपग्या
मादळ-थाळी नीं बाजै
फगत हाथ री थप-थप सुणीजै
थाळी में तरेड़ ई कोनी
पण संगीत लोप व्हैय-बिलायग्यौ ।
मूंडौ ढेरियां
आमण-दूमणा बैठा ई हा पाछा
के सुणिज्यौ-
‘गुलाम देस रै नवौ झंडौ चढै
म्है आजाद व्हैग्या
किंग जार्ज वाळौ कलदार अबै खोटौ है
बजार-चलण में कोनीं रैह्यौ ।
म्हैं राजी होय बधावौ उगेरण
गळौ खेंखारियौ ई हौ
के औ कांई
जूना झंडा अर कलदार री जोड़ा-जोड़
म्हांरी भासा ई चलण में नीं रही
खोटै पड़गी !
नवै राज नवी भासा !
जांणै भासा कोई सविधान व्है
जिकौ आयै राज पलटीजै ।
तूटोड़ी जूंनी म्यांन बदळीजती सुणी
पण नवै म्यांन तलवार ई बदळीजगी ।
‘इण नांजरै सुहाग करतां रंडापौ भलौ
मूंडै सूं काढ़तौ ई हौ
के स्यांणा-समझणा होठां आंगळी धराअ
करी सांनी-
‘आपरी मायड़ रै धामलै रोवणौ-रींकणी
नवै राज सारू अपसूंण गिणीजै
बोला-बळौ !’