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अबूझ पहेली है / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

हँसकर, रोकर, कभी मौन रहकर के अब तक झेली है।
यह मेरी जिन्दगी नहीं है एक अबूझ पहेली है।

कभी मित्रता के मधुरिम सोपानों-सी लगती मुझको
जहर पिलाती हुई कभी यह दुष्टा बनी सहेली है।

कौन ठिकाना इसका कब यह कौन राग भर बैठेगी,
पत्थर बने-बने यह पाटल इसकी गति अलबेली है।

कभी अमावस में डूबी-सी लगती है निःसार विकल
कभी कभी पूनम चन्दा-सी लगती नयी नवेली है।

विश्वविजयिनी-सी प्राह्लादित कभी महामलिका बनती
कभी संकटापन्न परिस्थितियों की लगती चेली है।

रहती है वैषम्य सहेजे सदा जिन्दगी अपने में
अपमानों के साथ प्रतिष्ठाओं की हेमामेली है।

रास रचाती कभी सरस सौरभ के कुंजों में मोहक
कभी कंटको में भी हँसकर पीड़ाओं से खेली है।

चिन्ताओं से घिरे हुए देखे इसने प्रासाद बहुत
खण्डहरों में आयोजित करती यादों की रेली है।