अब तुमसे क्या और कहूँ मैं!
इधर विषम-जल-ज्वाल जगी है,
उधर विकट वन-आग लगी है;
तिस पर काँटा अलग लगा है;
ऐसे में कैसे निबहूँ मैं?
दृग अनिमेष कि कब उगते हो,
तरल अँगार ललक चुगते हो;
उदित हुए तो किस छाया सँग!
यह कसकन किस भाँति सहूँ मैं?
सस्मित वन-वन अनतु धरे तनु
पाँच विशिख धर तान रहा धनु;
खोलो तीजी आँख, तभी तो
शरत्-शिखी-सा मौन रहूँ मैं!