भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अमरत्व / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना
Kavita Kosh से
बेहतर हो कि हम अमरत्व के बारे में न सोचें
और न माथापच्ची करें लौकिक नेमतों पर
हम जिएँ, जैसे जीते हैं लोगबाग, अलमस्त
जिएँ और हम करें, वही जो कर सकते हैं
हम्हैं धरती के साधारण मानव
हम ही क्यों, धरती पर जनमे बड़े-बड़े पैगम्बर भी
उतना ही कर सके, जितना था उनके बस में
कितनी है सुन्दर यह धरती, कितनी सुन्दर हिम
ये नदियाँ, घास-फूस, ये वृन्त सजीले
सदा रहे ये, हमें मिला है जो भी, यह सब
जीवन में, उससे भी आगे
बन्धु-बान्धवों जीओ, और तुम उसे न मापो
जिसे मापने की क्षमता है नहीं तुम्हारी
और अमरत्व, तब आएगा, केवल तब
जब तुम जानने को शेष न होगे जीवित,
होगे मृत ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना