कसमसाई है लता की देह
फागुन आ गया!
पारदर्शी दृष्टियों के पार
सरसों का उमगना
गंध-वन में निर्वसन होते
पलाशों का बहकना
अंजुरी भर-भर लुटाता नेह
फागुन आ गया!
इंद्रधनुषी रंग का विस्तार
ओढ़े दिन गुजरते
अमलतासों-से खिले संबंध
फिर मन में उतरते
पंखुरियों-सा झर गया संदेह
फागुन आ गया!
एक वंशी-टेर तिरती
छरहरी अमराइयों में
ताल के संकेत बौराये
चपल परछाइयों में
झुके पातों से टपकता मेह
फागुन आ गया!
नम अबीरी दूब पर
छाने लगा लालिम कुहासा
पुर गया रांगोलियों से
व्योम भी कुंकुम-छुआ-सा
पुलक भरते द्वार, आंगन, गेह
फागुन आ गया!