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अयाँ है हर तरफ़ आलम में / वली दक्कनी

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अयाँ है हर तरफ़ आलम में हुस्न—ए—बे—हिजाब उसका

बग़ैर अज़ दीदा—ए—हैराँ नहीं जग में निक़ाब उसका


हुआ है मुझ पे शम्अ—ए—बज़्म—ए—यकरंगी सूँ यूँ रौशन

के हर ज़र्रे ऊपर ताबाँ है दायम आफ़ताब उसका


करे है उशाक़ कूँ ज्यूँ सूरत—ए—दीवार—ए—हैरत सूँ

अगर परदे सूँ वा होवे जमाल—ए—बेहिजाब उसका


सजन ने यक नज़र देखा निगाह—ए—मस्त सूँ जिसकूँ

ख़राबात—ए—दो आलम में सदा है वोह ख़राब उसका


मेरा दिल पाक है अज़ बस, ’वली’ ! जंग—ए—कदूरत सूँ

हुआ ज्यूँ जौहर—ए—आईना मख़्फ़ी पेच—ओ—ताब उसका