अरे है वह वक्षस्थल कहाँ / हरिवंशराय बच्चन

अरे है वह वक्षस्थल कहाँ?

ऊँची ग्रीवा कर आजीवन
चलने का लेकर के भी प्रण
मन मेरा खोजा करता है
क्षण भर को वह ठौर झुका दूँ अपनी गर्दन जहाँ।
अरे है वह वक्षस्थल कहाँ?

ऊँचा मस्तक रख आजीवन
चलने का लेकर के भी प्रण
मन मेरा खोजा करता है
क्षण भर को वह ठौर टिका दूँ अपना मत्था जहाँ।
अरे है वह वक्षस्थल कहाँ?

कभी करूँगा नहीं पलायन
जीवन से, लेकर के भी प्रण
मन मेरा खोजा करता है
क्षण भर को वह ठौर छिपा लूँ अपना शीश जहाँ।
अरे है वह वक्षस्थल कहाँ?

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