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अर्धसत्य-1 / दिलीप चित्रे
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चक्रव्यूह में धँसने के पहले
कौन और कैसा था मैं
यह मुझे याद ही नहीं आएगा
चक्रव्यूह में धँसने के बाद
मेरे और चक्रव्यूह के बीच
केवल जानलेवा निकटता थी
यह मैं जान ही नहीं पाऊंगा
चक्रव्यूह से बाहर निकल
मुक्त हो जाऊँ मैं चाहे फिर भी
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा इससे चक्रव्यूह की रचना में
मर जाऊँ या मार डालूँ
ख़त्म कर दिया जाऊँ या ख़ात्मा कर दूँ जान से
असम्भव है इसका निर्णय
सोया हुआ आदमी
जब शुरू करता है चलना नींद में से उठकर
तब वह देख ही नहीं पाऐगा दुबारा
सपनों का संसार
उस निर्णायक रोशनी में
सब कुछ एक जैसा होगा क्या?
एक पलड़े में नपुंसकता
दूसरे पलड़े में पौरुष
और तराजू के काँटे पर बीचों-बीच
अर्धसत्य।
अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले