भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अलमस्त हूं / विष्णुचन्द्र शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नदी
का कोई
पर्याय नहीं बचा है
जीवन में।

फिर भी
मैं
नदी में तैरते हुए
गहरी डुबकी लगा कर भी
नदी नहीं
बना हूँ।

मेरे कमरे की
कटी-पिटी धूप से
साबुत
और बड़ी है
यहाँ की धूप!

जरूर यह
आकाश की धूप
अलमस्त है

धूप को
आकाश
पाट नहीं
सका है
मैं
वही अलमस्त धूप हूँ।

-पारी, 17.7.2009