नदी
का कोई
पर्याय नहीं बचा है
जीवन में।
फिर भी
मैं
नदी में तैरते हुए
गहरी डुबकी लगा कर भी
नदी नहीं
बना हूँ।
मेरे कमरे की
कटी-पिटी धूप से
साबुत
और बड़ी है
यहाँ की धूप!
जरूर यह
आकाश की धूप
अलमस्त है
धूप को
आकाश
पाट नहीं
सका है
मैं
वही अलमस्त धूप हूँ।
-पारी, 17.7.2009