अविनाश / शंख घोष / जयश्री पुरवार
अमा ! इस रात्रि के बीच एक पतली सी पगडण्डी
टेढ़ी-मेढ़ी होकर कहीं बहुत दूर जाकर ख़त्म हो गई है
ज़ख़्म का निशान छू-छूकर ठीक वहीं पर
ढ़ूँढ़ने गया हूँ तुम्हें, तुम्हारा अशरीर ।
पेड़-पौधों से घिरी सुनसान जगह पर कोई आवाज़ नहीं
सिर्फ़ अपनी ही सांस की आवाज़ सुनाई देती है
नींद के भीतर सम्मोहित का पदक्षेप
ढ़ूँढ़ने गया है तुम्हें , तुम्हारा अवकाश ।
याद आते हैं सिर्फ़, छोड़कर आए हुए सभी अपघात
किस तरह से अभी भी तोड़ देते हैं गोपन दुर्ग
कैसे अभी भी रक्तपात के इशारों से
याद आती है सिर्फ़ तुम्हारी ही, तुम अविराम ।
मेरे भी दोनों हाथों में तुमने देने चाहे थे सैकड़ों दायित्व
वही मैं यहाँ आज इतनी दूर आकर देखता हूँ
शव बनकर पास ही लेटे हुए हैं सभी वनचर
लकड़ी के शरीर में, तुम अशरीर, अमलिन ।
वापस लौटने की राह पर क़दम बढ़ाता हूँ, आँधी आती है
पल भर में शब्दों की आवाज़ से निर्जनता भर जाती है
बिजली की चमक में देखता हूँ सभी वृक्ष शमी वृक्ष हैं
अँगड़ाई लेते हैं वे जो सोए हुए थे इतने समय से
तभी तुमको भी देखता हूँ आज भी तुम अविनाश ।
मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार