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असंभव / उमा अर्पिता

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खामोशी के जंगल में
घुटकर रह गई हैं
साँसें मेरी…
किसी ने अपनेपन की आड़ में
बड़ी होशियारी से मेरे होंठों से
हँसी छीन
चिपका दी हैं खामोशियाँ
और भर दी है घुटन
मेरे अंतस में…
कैक्टस हो गए चाहतों के काँटे
अब मुझे चुभने लगे हैं...!
मेरी आँखों से टपके लहू की बूँदें
मेरे हाथ की रेखाओं में
आज भी उतनी ही ताजा हैं, पर
चाह कर भी
चाहतों का गला घोंटना
मुझसे नहीं हो पाया!