भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

असमंजस / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आबेॅ तोहीं बताबॅ मीत!
हे हमरॅ परानॅ के परान!
कोन मुँह लैकेॅ
वही रास्ता सें होयकेॅ
निराश लौटी केॅ जैबै हम्में?
पूछतै तेॅ की बतैबे हम्में?

निराशा से भरलॅ हमरॅ लटकलॅ मुँह देखी केॅ
की सोचतै वें
केना केॅ की उत्तर देबै हम्में?
केना केॅ पार उतरबै हम्में?
केना केॅ कहबै...
कि जेकरा लेली मरली-हफसलो
दुलहिन नांकी सजली ऐली छेलियै
ऊ मीत हमरॅ नै ऐलै।

केकरा कहिये
आपनॅ ई दुख
केकरा सुनैइयै
आपनॅ मनॅ के बात
के सुनतै
केकरा फुरसत छै
हों, सखी चानन ने पूछतै जरूर
हेना में आबी केॅ तोहीं बताबॅ प्रीतम
हम्में की कहबै?