Last modified on 20 मई 2021, at 01:28

आँखें गले मिलीं / कविता भट्ट

आँखें गले मिलीं तो कर गईं,
निश्छल शैशव का आलिंगन।
पहाड़ी झरने- सी उसकी हँसी,
दो पल नहाया मेरा बचपन।

एक-एक धारा में भर अंजुलि,
जी न भरा, जी लिया जीवन ।
बचपन जो पुरुष न था न स्त्री,
अब वह पुरुष, मैं स्त्री का बंधन।

देह बन्दी हुई जकड़न में ,
क्या पाया ,पाकर बैरी यौवन।
मन भिखारी-सिंहासन बुद्धि,
खोजूँ- पुनः वही मन-बचपन।