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आंख्यां / इरशाद अज़ीज़
Kavita Kosh से
बगत रै रेलै साम्हीं
कीं नहीं ठै‘र सकै
सांसां रो सूत
टूटतां जेज नीं लागै
पण कुण सोचै आ बात
थकां आंख्यां
जे कोई बणै आंधो
तो उणनैं मारग कुण दिखावै?
अर जे दिखावै कोई
तो आ ईज कैवै
म्हैं दूजां रै बतायोड़ै मारग
क्यूं चालूं?
अैड़ा आखी जिनगाणी
भटकता ई रैवै
भटकता ईज रैसी।