आई कुछ ऐसी नींद हमें / रामगोपाल 'रुद्र'
आई कुछ ऐसी नींद हमें, मालूम न हमको हो पाया
कब रात गई, कब भोर हुआ!
तारे थे तो कुछ जुगनू भी, रह-रह कुछ माँग रहे हमसे;
आलोक उन्हें हम क्या देते बेखुद, बेदम, अपने ग़म से!
काजल ही बरसा किया कुटिल आकाश हमारे आँगन में;
बस, एक अकेली दीपशिखा भर-रात रही लड़ती तम से;
तब भी न हमारी आँख खुली, जब सूरज काफ़ी चढ़ आया,
कोलाहल-सा सब ओर हुआ!
ऐसा रसिया झोंका आया कि अबन्ध सुगन्ध उड़ी, फैली;
तितली के पाँख पतंग बने, इठलाई पूरब की शैली;
मधुकोष लुटाकर भौरों ने बदमस्त बड़ाई तो पाई!
पाटल की पौद करील बनी, क्यारी की साड़ी मटमैली;
टूटा न खुमार कि साक़ी ने जब-जब प्याले को सरसाया,
कुछ और नशे को ज़ोर हुआ!
दुपहर अब होने को आई; अब तो जागें, कुछ होश करें;
सपना सच करके दिखलाएँ सपनों से क्या सन्तोष करें;
गुलशन ही नहीं रहेगा तो गुल कहाँ खिलाएँगे माली?
चाहिए कि पहले उत्पाती आँधी को हम ख़ामोश करें;
क्या हवा बही इस मौसम में! आलम का आलम बौराया!
तन साध रहा, मन चोर हुआ!