भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आएँगे हम भी अगर / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मिलने जुलने की गप लगाने की
कॉफी-हाउस की चायखाने की
रीत ही उठ गयी है अब
पाँव उठते हैं ठिठक जाते हैं
पास तक जा के लौट आते हैं
सुना है कल की गोष्ठी में भी
फिर नहीं आया कोई
जब कि छुट्टी थी
और ख़ुशगवार था मौसम
कोई हड़ताल या जुलूस भी नहीं था कल

अगली बैठक का पत्र आया है
है किसी की किताब पर चर्चा
जिसमें पर्चा तुम्ही को पढ़ना है
अब तो मेट्रो भी है और बस भी है
बन पड़ा तो जरूर आऊँगा
पिछली बेन्चों पे ठीक रहा है
बीच में उठ के निकलना आसान
बीच में बच के निकल लेने की
अपनी आदत-सी पड़ गयी है अब
पिछला दरवाजा भी क्या चीज है खूब!

इन दिनों हम जहाँ पे रहते हैं
उसे कहते हैं दूरियों का देश
उससे लगकर
बड़ा विस्तार है मरुस्थल का
जिसकी बालू को छानते हैं हम
खोजते हैं
कोई अनजान अनोखी बहुत बारीक-सी चीज़
जिसमें दुख-सा छुपा हुआ है सुख
स्वप्न हैं भय है एक दुनिया है
यात्रा है मगर गन्तव्य नहीं

फिर भी कुछ है
जो खींचता है हमें
वो मिले या न मिले या मिले तो बदला हुआ
हमें तो जागते रहना है भटकना है दूर जाना है
ऐसे में अब कहो कि क्या आएँ
कोई कुछ बोल न दे चाय के वक्त
अब तो मेट्रो भी है और बस भी है
और पर्चा पढ़ोगे तुम इस बार
इसलिए लोग भी आएँगे खूब
कोई अचरज नहीं कि बहस भी अच्छी होगी
बात होती रहे कुछ बात बढ़े।
आएँगे हम भी अगर आ पाए।